Thursday 18 September, 2008

माँ........

माँ को लफ्जों में बयान करना नामुमकिन है ,अपने दिल की आवाज़ को कुछ शायर/कवि ने हम तक पहुचाने की कोशिश की है.
पेश ऐ खिदमत है......
इसके साथ ही हमसुखन दुनिया की तमाम माँओं की उम्र दराजी के लिए दुआगो हैं.
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लबों पर उसके कभी बद'दुआ नही होती,
बस एक माँ है जो कभी ख़फा नही होती...

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है...

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों माँ ने नही धोया दुपट्टा अपना..

अभी जिंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नही होगा,
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है...

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है

ऐ! अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया

मेरी ख्वाहिश है की मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपटूँ की बच्चा हो जाऊँ

'मुनव्वर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नही रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नही होती
"मुनव्वर राना "
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कब्र के आगोश में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर ज़रा थोड़ा सुकून पाती है माँ
फिक्र में बच्चों की कुछ ऐसे ही घुल जाती है माँ
जब जवान होते हुए बूढी नज़र आती है माँ
रूह के रिश्तों की ये गहराईयाँ तो देखिये
चोट लगती है हमारी और चिल्लाती है माँ
कब ज़रूरत हो मेरी बच्चे को इतना सोचकर
जागती रहती है आँखें और सो जाती है माँ
घर से जब दूर जाता है कोई नूर ऐ नज़र
हाथ में कुरान लेकर दर पे आती है माँ
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम परदेश में
आंसू को पोछने ख्वाबों में आ जाती है माँ
लौट कर सफर से जब भी घर आते हैं हम
डालकर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ
शुक्रिया हो ही नहीं सकता उसका कभी अदा
मरते मरते भी जीने की दुआ दे जाती है माँ
मरते दम बच्चा अगर न आ पाये परदेश से
अपनी दोनों पुतलियाँ चौखट पे रख जाती है माँ
प्यार कहते हैं किसे और ममता क्या चीज़ है
यह तो उन बच्चों से पूछ जिनकी मर जाती है माँ.......
"अज्ञात"
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माँ! सोचता था कुछ लिखूं तुम्हारे लिए भी,
पर लिख नहीं पाता था,
सच में कठिन भी तो है,
जिसने किया हो सृजित मुझे, उसके लिए करना कुछ सृजन…
माँ ! जब मुझमें थी थोड़ी समझ,
मैं सोचता था, मैं हूँ तुम्हारे सात्विक संबंधों का शेष,
पर अब लगता है,
तूने इस शेष को अपना आशीष देकर बना दिया है विशेष.
माँ! मुझे अच्छी तरह तो याद नहीं ,
तेरे स्तनों से चिपट कर मिटाता था भूख,
माँ, स्तनों से रिश्ता आज भी है
पर अब बदल गयी है उसकी परिभाषा,
ऐसा क्यूँ है माँ!
माँ! चाहता हूँ, जब तू बूढी़ हो जाए,
तेरी खिदमत करूँ मैं माँ बन कर
पर ऐसा क्यूँ लगता है,
परवरिश के तेरे दिनों को,
छू तक भी न पाएँगे,
खिदमत के मेरे सैकड़ों साल.
माँ! जब मैं करता था कोई शरारत,
तो तू बाँध देती थी मेरे हाँथ,
मैं समझ नहीं पाता हूँ,
फ़िर तू क्यूँ रोती थी, मेरे रोने के साथ,
माँ! तुझमें ऐसी क्यूँ थी बात.
माँ! आज मुझमें है कितना स्वार्थ,
मैंने तुझे लिखने को बाँध लिया है वक्त के साथ,
फ़िर भी माँ,
पूरी ज़िन्दगी तो तू है,
कैसे लिख पाऊंगा,
अपनी ज़िन्दगी को मैं स्वयं ही…।


"अनीस"

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3 comments:

अवनीश एस तिवारी said...

wah !!! bahut accha likha hai

daanish said...
This comment has been removed by the author.
daanish said...

maaN ki mahaan mamtaa ke baare mei itna kuchh parhne ko diya aapne...
shukriya lafz chhota lagtaa hai.
pichhle dino Pathankot aur Ferozepur (Punjab) meiN Munavvar Rana ji ko ru.b.ru sun`ne ka mauqa mila, bs ek ziyarat ho gayi.
Aapke khyalaat muqaddas haiN, paavan haiN...aapko naman
---MUFLIS---